... भला हो इस कोरोना का ...
कोरोना की मार ने इंसानों की तेज रफ्तार जिंदगियों को ब्रेक लगा दिया है। इस बीमारी ने दुनिया की स्पीड़ को अचानक से रोक कर यह साबित कर दिया हैं कि इंसान चाहे कितनी भी तरक्की कर ले, मगर कुदरत को कभी चैलेंज नहीं कर सकता।
कुदरत का एक छोटा सा वार इंसान को बेबस कर देता है। प्रकृति की इस मार से इंसान सब कुछ भूल कर फिर से पुरानी राहों पर लौट आता है।
इसी तरह कोविड 19 यानि कोरोना की मार से हर इंसान परेशान हुआ। किसी को कम तो किसी को ज्यादा नुकसान अवश्य ही उठाना पड़ा। एक तरह से इस महामारी ने सभी को सोचने के लिए मजबूर कर दिया।
वे प्रवासी जो मुम्बई जैसी मेट्रो सिटी की चकाचौंध मेेंं खो गए थे, उन्होंने कभी ऐसा सोचा भी नहीं था कि जिस शहर में पांव रखने को जगह नसीब नहीं होती है। ऐसा समय भी आ सकता हैं कि उसी सड़क पर ढूंढने पर दूर-दूर तक इंसान नजर नहीं आएंगे।
समय बड़ा बलवान है। प्रकृति ने थोड़ी सी करवट क्या ली इंसान पूरी तरह से बेबस नजर आने लगा। इंसान जिसने चांद पर प्लॉट काटने का मंसूबा बनाया। वह अपने घर के प्लॉट में ही सिमट कर रह गया। चांद को गले लगाने की सोचने वाला घर वालों से भी सोशल डिस्टेंसिंग के कारण गले मिलने से कतराने लगा है।
कोरोना की मार से दुखी तो सभी हुए हैं। मगर इस महामारी ने कई कुंभ के मेले की तरह बिछड़े मित्रों को मिलाने का काम भी किया है। कई ऐसे पुराने साथी जो बचपन में बहुत अच्छे दोस्त थे, काम-धंधे के कारण गांव-कस्बा छोड़ कर कुछ समय के लिए परदेश क्या गए कि वहीं के होकर रह गए थे।
मगर इस कोरोना की मार से उन्हें फिर से गांव की याद सताने लगी और वे गांव-कस्बों की ओर लौटने लगे हैं। मेरी मुलाकात मार्केट में ऐसे ही पुराने साथी इदरीश से हो गई। उसे देखकर बरबस ही याद आया कि -
खूब गए परदेश कि अपने दिवार-ओ-दर भूल गए,
शीश महल ने ऐसा घेरा, मिट्टी के घर भूल गए ?
उससे मैंने कहा कि तुम तो परदेश में जाकर ऐसे बसे कि कभी वापस शक्ल ही नहीं दिखाई। उसका जवाब था, इंसान कब अपनों से दूर जाना चाहता है मगर कभी-कभी हालात ऐसे बन जाते हैं कि न चाहते हुए भी कुछ फैसले लेने पड़ते हैं।
कौन चाहता है ?
छोड़कर जाना परदेश घर अपना
किसी की मजबूरी,
किसी की ख्वाहिशें,
किसी के सपनें
और किसी की हालत भेज देती हैं !
उसने बताया कि पढ़ाई पूरी करने के बाद जब से गया हूं तो मुम्बई में इमीटेशन लाइन से जुड़ गया। कुछ समय तक गांव आना-जाना होता रहा, इसी दरम्यान शादी भी हो गई। उसके पश्चात गृहस्थी के साथ मुम्बई में ऐसा सेटल हुआ कि गांव आने का समय ही नहीं मिला।
मेट्रो सिटी मुम्बई की ऐसी चक्कर घिन्नी में फंसा कि न जाने कब सुबह होती है और न जाने कब रात, पता ही नहीं चलता। सुबह जल्दी उठकर तैयार होकर घर से निकलता तो पहले तो टैक्सी की मारा-मारी, फिर लोकल ट्रेन का झंझट।
दिन भर दुकान पर टाइम नहीं। शाम को फिर घर के लिए निकलता तो वहीं झंझट, अपने-फ्लेट तक पहुंचते-पहुंचते रात के करीब 11 बज जाते। इस तरह साथ रहने के बावजूद भी आते-जाते अपने बेटे-बेटी को सोते ही देखता। साथ रहकर भी उनसे बात करने के लिए तरस गया था। इस तरह बात करते करते उसका गला भर आया। ऐसा लगा कि वह कहना चाह रहा है -
ये न पूछो कैसी गुजरी जिंदगी परदेश में ?
आंख नम होती रही हर घड़ी परदेश में।
रात मातम में गुजारी, दिन मोहर्रम की तरह,
जब मैंने मनाई ईद भी परदेश में।।
मुझे आश्चर्य तो तब हुआ जब उसने कहा ''भला हो इस कोरोना का! जिसने मुझे घर की याद दिलाई।'' इस महामारी के कारण मुझे दो महीने का पेमेन्ट जरूर आधा मिला मगर पारिवारिक सुख पूरा मिला। जिसके लिए मैं तरस गया था। लॉकडाउन के दौरान परिवार के साथ बिताए समय ने मुझे फिर से सोचने को मजबूर किया कि जिंदगी में पैसा ही सबकुछ नहीं है।
परिवार अगर साथ हो तो इंसान गरीबी में भी खुशी से जिंदगी जी सकता है मगर परिवार के बगैर पैसा किसी काम का नहीं। यानि पैसे से सामान खरीदा जा सकता है खुशियां नहीं।
इस तरह बताते हुए इदरीस बोला कि मैं परदेस की चिकनी-चुपड़ी को छोड़कर गांव की सूखी-बासी के लिए फिर से लौट आया हूं। साथ ही यह भी फैसला कर आया हूं कि चाहे गांव में घी-घड़ा भले ही न मिले मगर मु_ी चना तो मिल ही जाएगा। यानि जिंदगी बसर करने लायक तो कमा ही लूंगा। इस तरह मैं पूरी तरह से गांव में बसने के इरादे से लौट आया हूं।
इदरीश ने बताया कि मैंने घर लौटने पर अम्मा-बाऊजी की आंखों में जो चमक देखी है, उसे देखकर मुझे ऐसा लगा कि शायद ये इतना खुश तो मेरे भेजे जाने वाले खर्चे से कभी भी नहीं हुए होंगे।
बच्चें भी दादा-दादी व परिजनों से मिलकर बहुत खुश नजर आने लगे हैं। इन सब खुशियों को देखकर मुझे ऐसा महसूस हो रहा हैं जैसे दो-तीन इन्क्रीमेंट एक साथ लग गए हो। इस तरह मेरी खुशियों को चार चांद लग गए हैं। मुझे यहां आकर आज भी सब कुछ पुराना ही लग रहा है। जैसा मैं बरसों पहले छोड़ गया था -
कश्ती भी नहीं बदली, दरिया भी नहीं बदला,
और डूबने वालों का जज्बा भी नहीं बदला।
तस्वीर नहीं बदली, शीशा भी नहीं बदला,
नजरें भी सलामत है, चेहरा भी नहीं बदला।
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