''मुसलमान की जान है : इमान ''
इस दुनिया में हर धर्म व मजहब के लोग रहते हैं। सभी धर्मों के अपने-अपने रीति-रिवाज व नियम कायदे हैं। जिनके सहारे वे दुनिया में अपने धर्म-कर्म को करते हैं। अपने पूर्वजों के बनाए रास्ते पर चलकर अपने क्रिया-कर्म को अंजाम देते हैं।
दुनिया के सभी धर्म आपस में मिल-जुलकर व इंसानियत के साथ रहना सिखाते हैं। कोई भी धर्म जुल्मो-सितम व बर्बरता का संदेश नहीं देता, मगर दुनिया में जो कमी दिखाई देती हैं। इसका मुख्य कारण हैं अपने धर्म के मर्म को सही तरीक से समझ नहीं पाना। क्योंकि सभी धर्मों में मानवता को ऊंचा मुकाम (स्थान) दिया गया है।
मानव धर्म उच्चतर सबसे,
रो मानव को मन से प्यार
मनुज मात्र की सेवा करना,
यही सब धर्मों का सार।इसी कड़ी में इस्लाम धर्म के बारे में जानने के लिए हमें इस्लाम के पांच स्तम्भों के बारे में जानना आवश्यक है। इस्लाम धर्म में पांच प्रमुख स्तंभ है। जिन पर इस्लाम धर्म टिका हुआ है। यह पांच स्तंभ है - इमान, नमाज, रोजा, जकात और हज।
मुसलमान की जान है: इमान
इस्लाम की बुनियाद यानि नींव जिन पर है, वह पांच सुतून (स्तंभ) है - इमान, नमाज, रोजा, जकात व हज। इन पांचों सुतूनों (स्तंभों) पर सही तरीके से काबिज रहकर ही सच्चा मुसलमान कहलाया जा सकता है। इन पांच रूक्न में से किसी एक को भी छोड़ कर सच्चा मुसलमान कहलाने का हक कायम नहीं किया जा सकता।
इमान इस्लाम का पहला रूक्न (स्तंभ) है और सबसे ज्यादा लाजिमी (जरूरी) है। एक सच्चे मुसलमान के लिए इमान को बचाना आखिरी सांस तक जरूरी है। इस्लाम में इमान का मर्तबा सबसे आला व बेहतर (जरूरी) है, क्योंकि ये ही वो रास्ता है जिसके द्वारा इस्लाम में दाखिल होते हैं। इमान के बगैर कोई अमल कबूल नहीं होता है। मुसलमान का इमान जितना पुख्ता होगा, उसके अमल उतने ही ज्यादा मकबूल होंगे। यानि मुसलमान की नींव का नाम ही इमान है। जब तक नींव मजबूत नहीं होती है, उस पर बनने वाली इमारत कभी भी मजबूत नहीं हो सकती है।
इस्लाम के बाकी के चार रूक्न अपने-अपने मुकर्रर (तय) वक्त पर फर्ज (आवश्यक) है। नमाज दिन में पांच बार, रोजा साल में एक महिना, जकात साल में एक बार कमाई का चालीसवां हिस्सा और उसी तरह हज जिन्दगी में एक बार फर्ज है। मगर इमान मुसलमान के लिए हर वक्त लाजिमी (आवश्यक) है। आखिरी सांस निकलने से चंद लम्हे पहले भी इमान खारिज हो गया तो उसकी सारी जिन्दगी के अमल खत्म हो जाते हैं, इसलिए मुसलमान की जान है इमान।
इमान की हिफाजत से ही सारे अमल महफूज है। मुसलमान को अपनी जिन्दगी की आखिरी सांस जब तक बाकी है, तब तक इमान बचाना लाजिमी है। इमान हर वक्त फर्ज (आवश्यक) है। नमाज वक्त पर फर्ज है, वक्त आते ही नमाज अदा की, फिर बन्दा उस नमाज से बरी (आजाद) हो जाता है। रोजा पूरे साल में सिर्फ एक महिना फर्ज है, यह फर्ज अदा करने के बाद वह अगले ग्यारह महिनों तक रोजा से बरी हो जाता है। जकात भी साहिबे निसाब पर पूरे साल में एक बार मुकर्रर हिसाब से फर्ज है। बन्दा जकात के लिए कमाइ का चालीसवां हिस्सा अदा करके पूरे साल के लिए आजाद हो जाता है। इसी तरह हज साहिबे हैसियत (यानि जिसके पास इतना पैसा हो कि हज कर सके) पर पर पूरी उम्र में सिर्फ एक बार फर्ज होता है, यह फर्ज अदा कर बन्दा पूरी जिन्दगी के लिए आजाद हो जाता है।
मगर इमान दरख्त की जड़ है जिसकी शाखाएं और फल अमल हैं। शैतान मरदूद मुसलमान के इमान पर ही हमला करता है क्योंकि जड़ कट जाने पर बाकी के आमाल तो वैसे भी महफूज नहीं रह सकते। इस तरह न बांस रहेगा न बांसुरी। इसलिए एक सच्चे मुसलमान को अपने इमान को जिंदगी के आखिरी लम्हे (सांस) तक बचाना लाजिमी है।
इमान क्या है ?
आईए अब जानते हैं इमान किसे कहते हैं ? ''ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदूर रसूलल्लाह '' इस कलमे को दिल से कबूल करना और उसकी मानी (भावार्थ) को समझकर उस पर यकीन करना कि ''अल्लाह तआला के सिवाए कोई इबादत के लायक नहीं व मोहम्मद रसूलल्लाह सल्लल्लाह तआला अलैह वसल्लम उसके सच्चे रसूल है।'' इस कलमा शरीफ में दो बाते जरूरी है। एक तो कलमा को जबान से कहना व दूसरा इसको दिल से कबूल करना। अगर इस कलमे में जर्रा बराबर भी शक पैदा हो जाए तो इमान खत्म हो जाता है।मेरी अन्य रचनाये पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे. . . . . .
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जवाब देंहटाएंमाशा अल्लाह आपने बहुत अच्छी बातें लिखी हैं और बड़े विस्तार से आपने ईमान के बारे में बताने की पूरी कोशिश की है मैं दुआ करता हूं कि अल्लाह त'आला आप को दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की अता फरमाए
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया हजरत हौंसला अफजाई के लिए
हटाएंबहुत बहुत मुबारकबाद शानदार आलेख ।यकीनन मुसलमान का ईमान उसकी जान है
जवाब देंहटाएंआपने बहुत ही सरल शब्दों में व्यक्त किया है। अल्लाह रब्बुल इज्जत आपकी कलम मे कुव्वत अता करें