मारवाड़ के समीर की कहानी मुम्बई के मारवाड़ी की जुबानी
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बहुत दिनों बाद एक दिन अचानक जब मुझे समीर मिला तो मैंने बड़े कौतूहल से पूछा क्या हुआ भाई? आ गई याद मारवाड़ की? वो रूआंसे स्वर में बोला, भाई आना तो पड़ेगा ही, नहीं तो आखिर जाए कहां ?
मैंने पूछा अरे क्या हुआ ? मैंने तो तुमको बहुत दिनों बाद देखा, इसलिए यूं ही पूछ लिया।
सुना है महानगरी मुम्बई में जाने वाले को गांव की याद नहीं आती है। एक बार जो वहां जाता है। वहां की चकाचौंध में ऐसा खो जाता हैं कि उसे न तो गांव की शुद्ध हवा की याद आती है न प्राकृतिक वातावरण की। वह तो बस मुम्बई के आलीशान बंगलों की चकाचौंध और वहां की न थमने वाली गति में ऐसा चक्करघिन्नी बन कर खो जाता है कि उसे कुछ ओर ख्याल ही नहीं रहता। महानगर की तेज रफ्तार गति से दौड़ती समय की सुंई और भूल-भूलैया में ऐसा फंस जाता है कि मालूम हीं नहीं पड़ता कि कब शुबह हुई कब शाम और कब रात। बस भागमभाग जारी रहती है। मालूम हीं नहीं पड़ता कौन किधर जा रहा है ?
ऐसा लगता है जैसे मुम्बई शहर में कभी रात ही नहीं होती, बस यूं कहिए कुछ घंटों के लिए मुम्बई सुस्ता भर लेती है। वहां के रहने वालों को चैन की नींद भी कहां नसीब होती है? सुबह चार बजते ही चहल पहल शुरू होती है जो सूरज की रोशनी के साथ परवान चढऩे लगती है, दिन में तो फिर लोगों का ऐसा सैलाब सड़कों पर नजर आता है कि पांव रखने को जगह नहीं रहती। रात के दो-ढाई बजे के करीब मुम्बई की सड़कें फिर एकाध घंटा सांस ले पाती है।
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मारवाड़ की मतवाली धरती |
इन्हीं बातों के साथ मैंने पूछ लिया, कैसा चल रहा है काम धंधा? गांव कब आए और कब वापस जाने का इरादा है?
समीर का जवाब था, मुम्बई से हर आने वाला अपने बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताता हैï? कोई कहता है सोने-चांदी की दुकान हैं, किसी का जवाब होता है इमीटेशन का धंधा है तो कोई कहता है बड़ी सी होटल पर गल्ला (कैश) संभालता हूं? लेकिन दर हकीकत ज्यादातर होता उसका उल्टा ही है। पेशेवर और खानदानी व्यापारी वर्ग को छोड़कर जो भी जाता है वहां की अंधी गलियों में खो जाता है। कोई किसी होटल पर रोटियां बेलता है। कोई साफ-सफाई और इसी तरह की गुलामी और गुमनामी की जिंदगी बसर करता है। जब वापस मारवाड़ की तरफ मुंह करता हैं तो एक-दो नई ड्रेस व जींस ठठा कर बन जाता हैं बंबइया बाबू और मारवाड़ आकर सुनाते हैं अपनी सफलता की मनगढंत कहानी।
मैंने कहा अच्छा तुम अपने बारे में तो बताओ क्या धंधा करते हो वहां ?
वह बोला काहे का धंधा ? यह कहते-कहते वह अपने अतीत की याद में गोते लगाने लगा। उसने बताया बचपन में पिता की मौत हो गई। मां ने पढऩे स्कूल भेजा, मगर पढ़ाई मेरे ऊपर असर करती उससे पहले ही। स्कूल में पहले दिन ही इन्टरवल में स्कूल के एक साथी से लड़ाई हो गई। उसके दो-तीन धर दी। उसने कहा मैं तेरी शिकायत मास्टरजी से करूंगा। बस यहीं से मेरी जिंदगी ने एक नया मोड़ ले लिया।
मैं मास्टरजी की मार के डर से स्कूल से हो गया फरार। फिर अगले दिन डर और अधिक सताने लगा कि एक तो उसने शिकायत की होगी, दूसरा कल स्कूल से भी मैं बिना बताए हो गया था फरार। अब दोगुनी मार सहन करनी पड़ेगी। इस उधेड़बुन में मां मुझे भेजती स्कूल और में गलियों में इधर-उधर चक्कर काटता। कुछ दिन ऐसे ही गुजर गए।
एक दिन घूमता-घूमता पहुंचा स्टेशन तो देखा कि वहां पर कुछ बच्चे रेलगाड़ी के पैसेंजरों को पानी पिलाकर पैसे कमा रहे हैं तो मेरे दिल ने भी कहा गुरू हो जा शुरू। जब हाथ में कुछ पैसे आए तो कुत्ते के मुंह पर खून लगता है वैसे ही मेरे मन में भी पैसे कमाने का लालच पैदा हो गया, क्योंकि घर की हालत तो पहले ही पिता की मौत के बाद पतली थी। घर तो जैसे-तैसे बस मां के सहारे चल रहा था। उन पैसों से कुछ खाने-पीने को मिल जाता।
एक बार जब इंसान कमाई के चक्कर में पड़ जाता है तो फिर उसे पढ़ाई-वढ़ाई याद नहीं आती। इसी तरह पानी से अखबार, मैगजीन के साथ कई छोटे-मोटे काम करता और छोटी मोटी इनकम का जो दौर शुरू हुआ वह चल रही रहा था कि एक दिन किसी मिलने वाले ने कहा समीर क्या जिंदगी भर ऐसे ही काम करते रहोगे? चलो मेरे साथ तुम्हे बम्बई घूमा लाता हूं। वहां जाकर तुम घूम भी लेना और तुम्हे अच्छी नोकरी भी दिला दूंगा।
अंधे को क्या चाहिए बस दो आंखे मुझे तो बस अब सोते-जागते मुम्बई के ही सपने दिखाई देने लगे। सावन के अंधे को तो सब हरा ही नजर आने लगा। साथ ले जाने वाला भी पहचान का ही था और मां भी मेरी करतूतों से परेशान थी इसलिए जाने की इजाजत मिल गई।
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महानगरी मुंबई |
एक पुराना कुर्ता और पैबन्द लगा पाजामा साथ लेकर चल दिया मुम्बई की ओर। मुम्बई जाने के बाद काहे का घूमना वह तो खुद एक कपड़े की दुकान पर काम करता था। मुझे भी वहीं पर 15 रूपए महीना तनख्वाह में लगा दिया, काम था सुबह जल्दी उठकर पूरे गोदाम की सफाई करना और कारीगरों के बताए गए कामों को पूरा करना।
दिन भर कारीगर आवाज लगाते ऐ मारवाड़ी पानी ला, कोई कहता ऐ मारवाड़ी चाय लेकर आ। मुम्बई में आकर मेरा नाम समीर तो जैसे गुम हो गया था और नया नाम मिल गया था मारवाड़ी। कुछ दिन इसी तरह चलता रहा। मुझे वहां की घुटनभरी जिंदगी रास नहीं आई।
कारीगरों के टिफिन लेने जिस होटल पर जाता वहां पर एक आदमी रोज नजर आता। उससे हाय हलो से मुलाकात बढ़ी तो परिचय हुआ। एक दिन उसने पूछ लिया तेरा नाम क्या है ? मैंने कहा समीर मारवाड़ी। अच्छा तो मारवाड़ी है मेरे साथ काम करेगा, दिन के दो रूपए मिलेंगे। मैंने हां कह दिया।
फिर शुरू हो गई एक नई कहानी। अगले दिन से मैं उसके साथ चल दिया। काम था चिंचोली फाटक के सिगनल पर कंघे बेचना। मेरा काम था जोर-जोर से आवाज लगाना एक रूपए का एक कंघा, कंघे बेचना, चोरी करने वालों का ध्यान रखना और भाई लोग जो हफ्ता वसूली के लिए आते उनके सामनेे सलीके से पेश आना। ये काम भी चलता रहा।
कुछ दिनों के बाद मन में ख्याल आया कि यह तो रोज के 200-250 कमाता है और मेरे को मिलते हैं सिर्फ दो रूपए। दिल फिर उठने लगा मगर मन मार कर काम करता गया। अब मैं पूरा चौकन्ना हो गया माल कहां से खरीदता है? कैसे खरीदता है? इस पर ध्यान देना शुरू कर दिया।
इसी दरम्यान में उस इलाके के भाई से भी अच्छी खासी पहचान कर ली।
एक दिन भाई को अकेला देख कर मैंने अपने दिल की बात कह दी कि भाई मुझे भी धंधे के लिए जगह दिलाओ ना। भाई ने शाम को मिलने के लिए कहा। शाम को पहुंच गया भाई के पास। भाई ने मुझसे पूछा कि तूझे क्या काम आता है? मैं बोला कंघे बेचना। पहले तो भाई हंसा फिर बोला ऐसा कर मारवाड़ी तू कल से बान्द्रा से चर्च गेट की लोकल ट्रेन में कंघा बेचना शुरू कर दे। कोई दिक्कत आए तो मेरा नाम ले लेना।
फिर क्या था बन गया मैं भी व्यापारी। दिन भर में 100-150 की कमाई शुरू हो गई। इस तरह जिंदगी परवान चढऩे लगी। रोज कमाना, ऐश-मोज करना। भाई के साथ रहना-खाना। उनके पास वाली खाली पड़ी खोली में सो जाना। वहां पर रोज पॉकेटमार व टपोरी लोगों के जिंदगी बसर करने केे तरीके को गौर से देखने लगा। उनके जिंदगी बसर करने के तरीकों को देखकर मेरी जिंदगी में एक तूफान पैदा हुआ।
मेरे जहन में भी एक सवाल पैदा हुआ? दिन भर चोरी चकारी करो, शाम को खाओ-पीओ और नशे में मस्त होकर सो जाओ। क्या यही जिन्दगी है ? ये जिन्दगी तो कीड़े-मकोड़ों की जिन्दगी से भी गई गुजरी हैं। परवरदिगार ने हमको अशरफुल मखलूकात (यानि कुदरत की बनाई चीजों में से सबसे खूबसूरत चीज इंसान) बनाकर पैदा किया है। उसने हमको दिल और दिमाग दिया है, परिवार और समाज दिया है। क्या हमारी कुछ भी जिम्मेदारी नहीं बनती है ? इस तरह हर आदमी जिंदगी जीने लग गया तो समाज और देश का क्या होगा ?
बस मेरे दिल ने मुम्बई में ठहरना गवारा न किया। अंतरात्मा ने आवाज दी, परदेस की पूरी से घर की आधी रोटी भली। दिल की इस आवाज पर लब्बैक कह कर मुम्बई से मारवाड़ फिर लौट आया हूं।
अब उसने मुझसे पूछा बताओ कुछ गलत तो नहीं किया मैंने? मेरा जवाब था समीर तुमने तो वह कर दिखाया जो एक पढ़ा-लिखा समझदार भी आसानी से नहीं कर पाता। दलदल में धंसते पांवों को होशियारी व हिम्मत के सहारे जिंदगी की ओर खिंच लाया है। या इस तरह कहूं तो ज्यादा अच्छा रहेगा कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया और उसे भूला नहीं कहते।
Bhai sahab akhir sameer ko to aana hi tha.marwadi me kahawat he ki
जवाब देंहटाएंGHAR BINA DHAR KATHI KONI
Malik shandar shandar mujhe aaj pata chal bhai sahab to bohat bade writer he.
Wah sa wah aaj bahut bahut fakhr aur khushi mehsus ho rhi he ki me me ek writer ka dost hu.
जनाब भाई शाकिर साहब,
हटाएंहौंसला अफजाई के लिए आपका दिल की गहराई से शुक्रिया।
उत्कर्ष रचना
जवाब देंहटाएंफ़क़ीर मोहम्मद जी की रचनाओं का जवाब नही
Good
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