ख़ुशी मनाओ के ईद का दिन है
चराग दिल के जलाओ के ईद का दिन है,
तराने झूम के गाओ के ईद का दिन है।
गमों को दिल से भुलाओ के ईद का दिन है,
खुशी से बज्म सजाओ के ईद का दिन है।
रमजान का पाक महीना आने पर हर सच्चा मुसलमान खुशी से झूम उठता है। इस महीने में उसे रोजे की शुरूआत के लिए सहरी, रोजे का समय पूरा होने पर इफ्तारी, रमजान की खास नमाज तरावीह, जुमातुल विदा (आखिरी जुमा) सहित बहुत सी नेअमते (उपहार) मिलती है। इसके साथ ही रमजान का पूरा महिना खुदा की इबादत व कुरआन की तिलावत में गुजरता है। इन कामों से उसे इतनी खुशी मिलती हैं कि लगभग 14 से 17 घंटों तक रोजे की हालत में भूख-प्यास का कोई अहसास ही नहीं होता है और तेज गर्मी व तपिश में भी खुशी के साथ खुदा की बन्दगी के लिए एक माह तक लगातार रोजे रख लेता है।
ईद के अर्थ को सरल शब्दों में इस तरह समझा जा सकता है - जिस तरह से एक मजदूर अपने मालिक के पास महीने भर समय पर मजदूरी करने जाता है, उसके बताए हर काम को खुशी-खुशी करता है। इस तरह जब उसका महीना पूरा हो जाता है और उसके बाद जब मालिक उसे मजदूरी देता है तो उस मजदूरी को पाकर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। ठीक उसी प्रकार एक महीने तक रमजान के महिने में खुदा की बन्दगी में मशगूल रहने के बाद जब ईद का दिन आता है तो मोमिन का दिल भी खुशी से झूम उठता है, इसी खुशी का नाम है ईदुल-फित्र।
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दूसरे शब्दों में कहे तो दुनिया की हर कौम (धर्म) के लोगों के लिए साल भर में दो-चार दिन ऐसे होते हैं, जिनको वो अपनी कौमी यादगार के रूप में मनाते हैं, और याद रखते हैं। इसी तरह मोमिनों का जश्न और मातम, खुशी और अलम, मरना और जीना सब खुदा-ए-बेनियाज (परवरदिगार) के लिए होता है, उसको मोमिन भाई अपने लफ्जों में ईद कहते हैं।
कुरआन मजीद में रब ने फरमाया कि - ऐ मेहबूब ! आप फरमा दीजिए कि मेरी नमाज और कुर्बानी, मेरा जीना और मरना सब कुछ अल्लाह रब्बुल आलमीन के लिए हैं।
रमजानुल मुबारक के खत्म होने पर शव्वाल माह की पहली तारीख को को ईदुल-फित्र मनाया जाता है। यह त्योहार पहली बार जंगे बद्र के बाद सन 2 हिजरी में मनाया गया। इसके बाद हर साल पाबन्दी से मनाया जाता है।
कड़ी आजमाइश और तपिश (त्याग) के बाद जिस खुशी का इजहार किया जाता हैं उसे ईदुल फित्र कहा जाता है। उसका सबब यह हैं कि खुदा के हुक्म को मानने व कायम रहने वालेे हर मुसलमान को साल में एक बार एक महीने तक कड़े इम्तहान (परीक्षा) से गुजरना पड़ता है। उसके बाद यह दिन नसीब होता है। एक माह के कड़े इम्तहान व फर्ज को अदा करने के बाद मोमिन भाई जितनी भी खुशियां मनाए और जितने भी सज्द-ए-शुक्र अदा करे कम है। यही वह सज्द-ए-शुक्र है जिसे अदा करने और अल्लाह तआला की बेपनाह रहमतों का इजहार करने लिए दुनिया के मुसलमान हर माह रमजानुल मुबारक के खत्म होने पर पहली तारीख को यह त्योहार मनाते हैं।
रोजे का असल मकसद यह हैं कि इन्सान नेकी करे और बुराई से बचे। अल्लाह के हुक्म पर चलने का आदी बने और उन तमाम बातों से परहेज करें जिन्हें अल्लाह पसन्द नहीं करता।
ईदुल फित्र को ईदुल सदका यानि खैरात देने का दिन भी कहा जाता है। क्योंकि इस्लाम ने हर साहिबे इस्तताअत (मालदार) मुसलमान पर जिसने रोजे रखे हो या कर्ज अदा किया हो, उसे ईद की नमाज अदा करने के लिए ईदगाह जाने से पहले सदका-ए-फित्र अदा करना जरूरी है। इस्लाम के इस हुक्म का मकसद एक तरफ गरीबों को ईद की खुशियों में शरीक होने का मौका अता करना है, दूसरी तरफ साहिबे हैसियत लोगों को इसकी तालिम देना हैं कि खुशियों के लम्हों में उन्हें अपने उन भाइयों को न भूलना चाहिए जिन्हें गरीबी ने दूसरों का मोहताज बना दिया है। इस तरह रमजान का महिना फजले खुदा व रहमते इलाही का खास महीना है।
इसलिए इस दिन दीन-दुखियों के गमों को दूर करने और उनकी जिन्दगी में खुशियां लाने यानि बज्म सजाने का काम करना चाहिए। हर मजबूर, मजदूर और मजलूम, बेचारे, गम के मारे, लावारिश, यतीमों, विधवाओं की जिन्दगी में खुशी लाने का काम करना चाहिए तभी हमारी सही मायनों में ईद होगी।
हुजूर उसकी करो सलामती की दुआ,
सरे नयाज झुकाओ के ईद का दिन है।
सभी मुरादें हो पूरी हर एक सवाली की
दुआ को हाथ उठाओं के ईद का दिन है।
एक नजर इधर भी
- सदका-ए-फित्र मालिके निसाब पर वाजिब है। अपनी व अपने परिवार के बच्चों की तरफ से 2 किलो 45ग्राम गैंहू के वजन के बराबर सदका-ए-फित्र अदा करे।
- ईद के दिन गुस्ल करना, नए और अच्छे कपड़े पहनना, खुशबू लगाना, मिस्वाक करना, एक दूसरे को ईद की मुबारकबाद देना, ईदगाह के लिए एक रास्ते से जाना व दूसरे रास्ते से आना सुन्नत व मुस्तहब है।
- ईदुल फित्र के दिन आहिस्ता-आहिस्ता (मंद आवाज में) और ईदुल अज्हा (बकरीद) के दिन बुलन्द (तेज) आवाज में तकबीर पढ़ते हुए जाना चाहिए।
- ईदुल फित्र की नमाज में जाने से पहले कुछ मीठा खाना चाहिए।
- ईदगाह इत्मीनाना व नीची निगाह कर जाना चाहिए।
- ईद के दिन फज्र की नमाज के बाद ईद की नमाज से पहले कोई नमाज नहीं पढऩी चाहिए।
- जुमा की नमाज में खुत्बा पहले व ईद की नमाज में खुत्बा बाद में पढ़ा जाता है।
- ईद का खुत्बा सुन्नत है, इसलिए खामोशी से बैठकर खुत्बा सुनना चाहिए। खुत्बे की आवाज सुनाई नहीं दे तो भी खामोशी से बैठे रहना चाहिए।
- ईद की नमाज के बाद गले मिलकर खुशी का इजहार करना चाहिए।
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बेहतरीन ... अल्लाह कामयाबी दे । आपको एवम आपके परिवार को ईद की दिली मुबारकबाद।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब भैया आप और आपका परिवार हमेशा खुश रहे
जवाब देंहटाएंबेहतरीन बहुत-बहुत बढिया अल्लाह रबुल इजजत जजा अता फरमाये
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